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Friday 3 September 2021

स्वामी विवेकानंद का मेरी हेल को लिखा गया पत्र




५४, पश्चिम, ३३वीं स्ट्रीट,

न्यूयार्क,

१ फरवरी, १८९५


प्रिय बहन,


तुम्हारा सुन्दर पत्र मुझे अभी मिला।… कभी-कभी काम के लिए काम करने को विवश हो जाना, यहाँ तक कि अपने परिश्रम के फल के भोग से वंचित भी रह जाना एक अच्छी साधना है।… तुम्हारे आक्षेप से मैं प्रसन्न हूँ और मुझे इसका जरा भी दुःख नहीं। अभी उसी दिन श्रीमती थर्सबी के यहाँ एक प्रेसबिटेरियन सज्जन के साथ गर्मागर्म बहस हो गयी थी। सामान्य रीति से उन सज्जन का पारा चढ़ गया और वे क्रोध में आकर दुर्वचन कहने लगे। परन्तु बाद में श्रीमती बुल ने मुझे बहुत झिड़का, क्योंकि इस प्रकार की बातें मेरे काम में बाधा डालती हैं। ऐसा मालूम होता है कि तुम्हारा भी यही मत है।


मुझे प्रसन्नता है कि तुमने इसी समय इस प्रसंग को उठाया, क्योंकि मैं इस पर बहुत विचार करता रहा हूँ। पहली बात यह कि मुझे इन बातों का तनिक भी दुःख नहीं। कदाचित् तुम्हें इससे नाराजी होगी – होने की बात ही है। मैं जानता हूँ कि किसी की भी सांसारिक उन्नति के लिए मधुरता कितना मूल्य रखती है। मैं मधुर बनने का भरसक प्रयत्न करता हूँ, परन्तु जब अन्तरस्थ सत्य के साथ विकट समझौता करने का अवसर आता है, तब मैं ठहर जाता हूँ। मैं दीनता में विश्वास नहीं रखता। मैं समदर्शित्व में विश्वास रखता हूँ – अर्थात् सबके लिए सम-भाव। अपने ‘ईश्वर’ स्वरूप समाज की आज्ञा पालन करना साधारण मनुष्यों का धर्म हैं, लेकिन जो ज्ञान के आलोक से सम्पन्न व्यक्ति हैं, वे ऐसा कभी नहीं करते। यह एक अटल नियम है। एक व्यक्ति अपनी बाह्य परिस्थितियों एवं सामाजिक विचारों के अनुकूल अपने आपको ढाल लेता है, और समाज से, जो कि उसका सब प्रकार के कल्याण करने वाला है, सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्राप्त कर लेता है। दूसरा एकाकी खड़ा रहता है और समाज को अपनी ओर खींच लेता है। समाज के अनुकूल रहने वाले मनुष्य का मार्ग फूलों से आच्छादित रहता है, और प्रतिकूल रहने वाले का काँटों से। परन्तु ‘लोकमत’ के उपासकों को एक क्षण में विनाश होता है और सत्य की सन्तान सदा जीवित रहती है।




सत्य की तुलना मैं एक अनन्त शक्तिवाले क्षयकर पदार्थ से करूँगा। वह जहाँ भी गिरता है, जलाकर अपना स्थान बना लेता है – यदि नरम वस्तु पर गिरे, तो तुरन्त, और अगर कठोर पाषाण हो, तो धीरे-धीरे; परन्तु जलता वह अवश्य है। जो लिख गया, सो लिख गया। मुझे दुःख है बहन, कि मैं प्रत्येक सफेद झूठ के प्रति मधुर और अनुकूल नहीं हो सकता। प्रयत्न करने पर भी मैं ऐसा नहीं कर सकता। इसके लिए मैंने आजीवन कष्ट उठाया है, परन्तु मैं वैसा नहीं कर सकता। मैंने प्रयत्न-पर-प्रयत्न किया है, पर ऐसा नहीं कर सका। अन्त में मैंने उसे छोड़ दिया। ईश्वर महिमामय है। वह मुझे कपटी नहीं बनने देता। अब जो मन में है, उसे सामने आ जाने दो। मैं ऐसा कोई मार्ग नहीं निकाल पाया, जिससे मैं सबको प्रसन्न रख सकूँ। मैं वहीं रहूँगा, जो मैं प्रकृत रूप से हूँ – अपनी अन्तरात्मा के प्रति पूर्ण रूप से ईमानदार। ‘सौन्दर्य और यौवन का नाश हो जाता है, जीवन और धन का नाश हो जाता है, नाम और यश का भी नाश हो जाता है, पर्वत भी चूर-चूर होकर मिट्टी हो जाते हैं, मित्रता और प्रेम भी नश्वर हैं, एकमात्र सत्य ही चिरस्थायी है।’ हे सत्यरूपी प्रभु, तुम्हीं मेरे एकमात्र पथप्रदर्शक बनो। मेरी उम्र बीत रही हैं, अब मैं केवल मीठा और केवल मीठा नहीं बना रहा सकता। जैसा मैं हूँ, मुझे वैसा ही रहने दो। ‘हे संन्यासी, निर्भय होकर तुम दुकानदारी वृत्ति छोड़ दो, शत्रु-मित्र में भेद न रखकर सत्य में दृढ़प्रतिष्ठ रहो और इसी क्षण से इहलोक, परलोक और भविष्य के सब लोकों का, उनके भोग एवं उनकी असारता का त्याग कर दो। हे सत्य, तुम्हीं मेरे एकमात्र पथप्रदर्शक बनो।’ मुझे धन या नाम या यश या भोग की कोई कामना नहीं है। बहन, मेरे लिए वे धूलि के समान हैं। मैं अपने भाइयों की सहायता करना चाहता था। प्रभु की कृपा से मुझमें धनोपार्जन का चातुर्य नहीं है। हृदयस्थ सत्य की वाणी की आज्ञा पालन न कर मैं लोगों की सनक के अनुरूप व्यवहार करने का प्रयत्न क्यों करूँ? मन अभी दुर्बल है बहन, और कभीकभी यंत्रवत् ही सांसारिक आधारों को पकड़ना चाहता है। परन्तु मैं डरता नहीं मेरा धर्म सिखाता है कि भय ही सबसे बड़ा पाप है।


प्रेसबिटेरियन पादरी से पिछली झपट के बाद और फिर श्रीमती बुल से लम्बे झगड़े के पश्चात्, जो मनु ने संन्यासियों के लिए कहा है, “अकेले रहो और अकेले चलो”, वह स्पष्ट हो गया। सब प्रकार की मित्रताएँ और प्रेम बन्धन हैं। ऐसी किसी प्रकार की भी मित्रता नहीं, विशेषतः स्रियों की, जिसमें ‘मुझे दो, मुझे दो’ का भाव न हो।


हे महर्षियो! तुम ठीक ही कहते थे। जो किसी व्यक्तिविशेष के आसरे रहता है, वह उस सत्यरूपी प्रभु की सेवा नहीं कर सकता। शान्त हो मेरी आत्मा, निःसंग बनो! और परमात्मा तुम्हारे साथ रहेगा। जीवन मिथ्या है, मृत्यु भ्रम है! परमात्मा का ही अस्तित्व है, इन सबका नहीं! डरो नहीं मेरी आत्मा, निःसंग बनो। बहन, मार्ग लम्बा है, समय थोड़ा है, सन्ध्या हो रही है। मुझे शीघ्र ही घर जाना है। मुझे शिष्टाचार सीखने का समय नहीं है। मुझे अपना सन्देश देने का समय तो मिलता ही नहीं। तुम गुणवती हो, दयावती हो, मैं तुम्हारे लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ ; परन्तु अप्रसन्न न हो, मैं तुम सबको नितान्त बच्ची ही समझता हूँ।


स्वप्न न देखो! आह, मेरी आत्मा! स्वप्न न देखो। संक्षेप में मुझे एक संदेश देना है। मुझे संसार के प्रति मधुर बनने का समय नहीं है : और मधुर बनने का प्रत्येक यत्न मुझे कपटी बनाता है। चाहे स्वदेश हो या विदेश, इस मूर्ख संसार की प्रत्येक आवश्यकता पूरी करने की अपेक्षा तथा निम्नतम स्तर का असार जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मैं सहस्र बार मरना अधिक अच्छा समझता हूँ। यदि तुम श्रीमती बुल की तरह समझती हो कि मुझे कुछ कार्य करना है, तब यह तुम्हारी भूल है, नितान्त भूल है। इस जगत में या अन्य किसी जगत् में मेरे लिए कोई कार्य नहीं है। मेरे पास एक संदेश हैं, वह मैं अपने ढंग से ही दूँगा। मैं अपने संदेश को न हिन्दू धर्म, न ईसाई धर्म, न संसार के किसी और धर्म के साँचे में ढालूँगा, बस। मैं केवल उसे अपने ही साँचे में ढालूँगा। मुक्ति ही मेरा एकमात्र धर्म है और जो भी उसमें रुकावट डालेगा, उससे मैं लड़कर या भागकर बचूँगा। छिः! मैं और पादरियों को प्रसन्न करूँ! बहन, बुरा न मानना। तुम बच्ची हो और बच्चियों को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। तुम लोगों को उस स्रोत का आस्वाद नहीं मिला, जो ‘तर्क को तर्कशून्य, मर्त्य को अमर, संसार को शून्य और मनुष्य को ईश्वर बना देता है।’ यदि तुम निकल सकती हो, तो इस मूर्खता के जाल से निकलो, जिसे दुनिया कहा जाता है। तभी मैं तुम्हें वास्तव में साहसी और मुक्त कह सकूँगा। यदि नहीं, तो जो इस झूठे ईश्वर अर्थात् समाज से भिड़ने का और उसके उद्दण्ड कपट को पैरों के नीचे कुचलने का साहस रखते हैं, उनको उत्साहित करो। यदि तुम उत्साह नहीं दिला सकतीं, तो चाहे मौन रहो, किन्तु उन्हें संसार से समझौता करने के, और मधुर और कोमल बनने की झूठे मिथ्यावाद के कीचड़ में फँसाने का प्रयत्न न करो।


यह संसार – यह स्वप्न – यह अति भयानक दुःस्वप्न – इसके देवालय और छल-कपट, इसके ग्रन्थ और लुच्चापन, इसके सुन्दर चेहरे और झूठे हृदय, इसके धर्म का बाहरी ढोंग और भीतर का अत्यन्त खोखलापन, और सबसे अधिक इसकी धर्म के नाम पर दूकानदार की सी वृत्ति – मुझे इससे सख्त नफरत है। क्या? संसार के हाथ बिके हुए दासों की कही-सुनी बातों से मेरी आत्मा का तोल होगा? छिः! बहन, तुम संन्यासी को नहीं जानतीं। मेरे वेद कहते हैं कि ‘वह (संन्यासी) वेदशीर्ष है’, क्योंकि वह देवालय, सम्प्रदाय, धर्ममत, पैगम्बर, ग्रन्थ और इनके समान सब वस्तुओं से मुक्त है। धर्मोपदेशक हों या और कोई, उन्हें चिल्लाने दो, मेरे ऊपर जिस प्रकार भी आक्रमण कर सकें, करने दो। मैं उन्हें वैसा ही समझता हूँ, जैसा भर्तृहरि ने कहा है, ‘हे संन्यासी! अपने रास्ते जाओ! कोई कहेगा, यह कौन पागल है? कोई कहेगा, यह कौन चाण्डाल है? कोई तुम्हें साधु जानेगा। संसारियों की बकवाद से योगी न तो रुष्ट होता है, न तुष्ट, वह सीधा अपने मार्ग से जाता है।’ परन्तु जब वे आक्रमण करें, तब यह जानो कि ‘बाजार में हाथी के पीछे कुत्ते अवश्य लगते हैं, परन्तु वह उनकी चिन्ता नहीं करता। वह सीधा अपनी राह पर जाता है। इसी तरह से जब कोई महात्मा प्रकट होता है, तब उसके पीछे बकने वाले बहुत लग जाते हैं।’


मैं लैण्डसबर्ग के साथ ५४ पश्चिम, ३३वीं स्ट्रीट में रहता हूँ। यह वीर और उदार आत्मा है परमात्मा उसका भला करे। कभी-कभी मैं गर्नसी परिवार के घर सोने के लिए चला जाता हूँ। परमात्मा की तुम पर सदैव कृपा रहे और वह तुम्हें इस महा पाखंड अर्थात् संसार से शीघ्र निकाले! यह संसाररूपी वृद्ध राक्षसी कभी तुम्हें मोहित न कर सके! शंकर तुम्हारे सहायक हों! उमा तुम्हारे लिए सत्य का द्वार खोल दें और तुम्हारे मोह को नष्ट कर दें!


प्रेम और आशीर्वादपूर्वक तुम्हारा,

विवेकानन्द




दृग्दृश्यविवेकः

 


रूपं दृश्यं लोचनं दृक् तद्दृश्यं दृक्तु मानसम् ।

दृश्या धीवृत्तयः साक्षी दृगेव न तु दृश्यते ॥ १॥


नीलपीतस्थूलसूक्ष्मह्रस्वदीर्घादि भेदतः ।

नानाविधानि रूपाणि पश्येल्लोचनमेकधा ॥ २॥


आन्ध्यमान्द्यपटुत्वेषु नेत्रधर्मेषु चैकधा ।

सङ्कल्पयेन्मनः श्रोत्रत्वगादौ योज्यतामिदम् ॥ ३॥


कामः सङ्कल्पसन्देहौ श्रद्धाऽश्रद्धे धृतीतरे ।

ह्रीर्धीर्भीरित्येवमादीन् भासयत्येकधा चितिः ॥ ४॥


नोदेति नास्तमेत्येषा न वृद्धिं याति न क्षयम् ।

स्वयं विभात्यथान्यानि भासयेत्साधनं विना ॥ ५॥


चिच्छायाऽऽवेशतो बुद्धौ भानं धीस्तु द्विधा स्थिता ।

एकाहङ्कृतिरन्या स्यादन्तःकरणरूपिणी ॥ ६॥


छायाऽहङ्कारयोरैक्यं तप्तायःपिण्डवन्मतम् ।

तदहङ्कारतादात्म्याद्देहश्चेतनतामगात् ॥ ७॥


अहङ्कारस्य तादात्म्यं चिच्छायादेहसाक्षिभिः ।

सहजं कर्मजं भ्रान्तिजन्यं च त्रिविधं क्रमात् ॥ ८॥


सम्बन्धिनोः सतोर्नास्ति निवृत्तिः सहजस्य तु ।

कर्मक्षयात् प्रबोधाच्च निवर्तेते क्रमादुभे ॥ ९॥


अहङ्कारलये सुप्तौ भवेद्देहोऽप्यचेतनः ।

अहङ्कारविकासार्धः स्वप्नः सर्वस्तु जागरः ॥ १०॥


अन्तःकरणवृत्तिश्च चितिच्छायैक्यमागता ।

वासनाः कल्पयेत् स्वप्ने बोधेऽक्षैर्विषयान् बहिः ॥ ११॥


मनोऽहङ्कृत्युपादानं लिङ्गमेकं जडात्मकम् ।

अवस्थात्रयमन्वेति जायते म्रियते तथा ॥ १२॥


शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरूपकम् ।

विक्षेपशक्तिर्लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत् ॥ १३॥


सृष्टिर्नाम ब्रह्मरूपे सच्चिदानन्दवस्तुनि ।

अब्धौ फेनादिवत् सर्वनामरूपप्रसारणा ॥ १४॥


अन्तर्दृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयोः ।

आवृणोत्यपरा शक्तिः सा संसारस्य कारणम् ॥ १५॥


साक्षिणः पुरतो भाति लिङ्गं देहेन संयुतम् ।

चितिच्छाया समावेशाज्जीवः स्याद्व्यावहारिकः ॥ १६॥


अस्य जीवत्वमारोपात् साक्षिण्यप्यवभासते ।

आवृतौ तु विनष्टायां भेदे भातेऽपयाति तत् ॥ १७॥


तथा सर्गब्रह्मणोश्च भेदमावृत्य तिष्ठति ।

या शक्तिस्तद्वशाद्ब्रह्म विकृतत्वेन भासते ॥ १८॥


अत्राप्यावृतिनाशेन विभाति ब्रह्मसर्गयोः ।

भेदस्तयोर्विकारः स्यात् सर्गे न ब्रह्मणि क्वचित् ॥ १९॥


अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।

आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥ २०॥


खवाय्वग्निजलोर्वीषु देवतिर्यङ्नरादिषु ।

अभिन्नाः सच्चिदानन्दाः भिद्येते रूपनामनी ॥ २१॥


उपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः ।

समाधिं सर्वदा कुर्याद्-हृदये वाऽथवा बहिः ॥ २२॥


सविकल्पो निर्विकल्पः समाधिर्द्विविधो हृदि ।

दृश्यशब्दानुविद्धेन सविकल्पः पुनर्द्विधा ॥ २३॥ 


कामाद्याश्चित्तगा दृश्यास्तत्साक्षित्वेन चेतनम् ।

ध्यायेद्दृश्यानुविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ॥ २४॥


असङ्गः सच्चिदानन्दः स्वप्रभो द्वैतवर्जितः ।

अस्मीति शब्दविद्धोऽयं समाधिः सविकल्पकः ॥ २५॥


स्वानुभूतिरसावेशाद्दृश्यशब्दावुपेक्ष्य तु ।

निर्विकल्पः समाधिः स्यान्निवातस्थितदीपवत् ॥ २६॥


हृदीव बाह्यदेशेऽपि यस्मिन् कस्मिंश्च वस्तुनि ।

समाधिराद्यः सन्मात्रान्नामरूपपृथक्कृतिः ॥ २७॥


अखण्डैकरसं वस्तु सच्चिदानन्दलक्षणम् ।

इत्यविच्छिन्नचिन्तेयं समाधिर्मध्यमो भवेत् ॥ २८॥


स्तब्धीभावो रसास्वादात्तृतीयः पूर्ववन्मतः ।

एतैः समाधिभिः षड्भिर्नयेत् कालं निरन्तरम् ॥ २९॥


देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।

यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ॥ ३०॥


भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ ३१॥


इति भारती तीर्थ स्वामिना विरचितः

दृग्दृश्यविवेकः समाप्तः ॥

Monday 12 October 2020

ओशो की दस आज्ञा

 


ओशो की दस आज्ञाओं को विस्तार से समझने के लिए कोष्ठक में लिखे प्रवचन पढ़िए या सुनिए-

1. किसी की आज्ञा कभी मत मानो जब तक कि वह स्वयं की ही आज्ञा न हो।
(सहज समाधि भली-19)
2. जीवन के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।
(सत्य का दर्शन-4)
3. सत्य स्वयं में है, इसलिए उसे और कहीं मत खोजना।
(नये मनुष्य का धर्म-6)
4. प्रेम प्रार्थना है।
(प्रेम है द्वार प्रभु का-7, अथातो भक्ति जिज्ञासा-1)
5. शून्य होना सत्य का द्वार है; शून्यता ही साधन है, साध्य है, सिद्धि है।
(ध्यान सूत्र-7)
6. जीवन है, अभी और यहीं।
(महागीता-2 दूसरा प्रश्न, महावीर वाणी भाग-2 प्रवचन-6)
7. जीओ--जागे हुए।
(क्या मनुष्य एक यंत्र है?-3, तृषा गई एक बूंद से-7)
8. तैरो मत, बहो।
(प्रीतम छबि नैनन बसी-14)
9. मरो प्रतिक्षण, ताकि प्रतिपल नए हो सको।
(अनहद में विश्राम-4)
10. खोजो मत, जो है--है, रुको और देखो।
(साधना पथ-4)



Tuesday 3 September 2019

!!! भज गोविन्दम् स्तोत्र !!!


‘भज गोविन्दम’ स्तोत्र की रचना शंकराचार्य ने की थी। यह मूल रूप से बारह पदों में सरल संस्कृत में लिखा गया एक सुंदर स्तोत्र है। इसलिए इसे द्वादश मंजरिका भी कहते हैं। ‘भज गोविन्दम’ में शंकराचार्य ने संसार के मोह में ना पड़ कर भगवान् कृष्ण की भक्ति करने का उपदेश दिया है। उनके अनुसार, संसार असार है और भगवान् का नाम शाश्वत है। उन्होंने मनुष्य को किताबी ज्ञान में समय ना गँवाकर और भौतिक वस्तुओं की लालसा, तृष्णा व मोह छोड़ कर भगवान् का भजन करने की शिक्षा दी है। इसलिए ‘भज गोविन्दम’ को ‘मोह मुगदर’ यानि मोह नाशक भी कहा जाता है। शंकराचार्य का कहना है कि अन्तकाल में मनुष्य की सारी अर्जित विद्याएँ और कलाएँ किसी काम नहीं आएँगी, काम आएगा तो बस हरि नाम। भज गोविन्दम श्री शंकराचार्य की एक बहुत ही खूबसूरत रचना है। इस स्तोत्र को मोहमुदगर भी कहा गया है जिसका अर्थ है- वह शक्ति जो आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त कर दे ।

भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते। सम्प्राप्ते सन्निहिते मरणे, नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥1॥

हे भटके हुए प्राणी, सदैव परमात्मा का ध्यान कर क्योंकि तेरी अंतिम सांस के वक्त तेरा यह सांसारिक ज्ञान तेरे काम नहीं आएगा। सब नष्ट हो जाएगा।

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां, कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्। यल्लभसे निजकर्मोपात्तं, वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥2॥

हम हमेशा मोह माया के बंधनों में फसें रहते हैं और इसी कारण हमें सुख की प्राप्ति नहीं होती। हम हमेशा ज्यादा से ज्यादा पाने की कोशिश करते रहते हैं। सुखी जीवन बिताने के लिए हमें संतुष्ट रहना सीखना होगा। हमें जो भी मिलता है उसे हमें खुशी खुशी स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हम जैसे कर्म करते हैं, हमें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है।

नारीस्तनभरनाभीनिवेशं, दृष्ट्वा- माया-मोहावेशम्। एतन्मांस-वसादि-विकारं, मनसि विचिन्तय बारम्बाररम् ॥ 3॥

हम स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं। परन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर सिर्फ हाड़ मांस का टुकड़ा है।

नलिनीदलगतसलिलं तरलं, तद्वज्जीवितमतिशय चपलम्। विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोकं शोकहतं च समस्तम् ॥4॥

हमारा जीवन क्षण-भंगुर है। यह उस पानी की बूँद की तरह है जो कमल की पंखुड़ियों से गिर कर समुद्र के विशाल जल स्त्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है। हमारे चारों ओर प्राणी तरह तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं। ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता?

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावत् निज परिवारो रक्तः। पश्चात् धावति जर्जर देहे, वार्तां पृच्छति कोऽपि न गेहे ॥5॥

जिस परिवार पर तुम ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, जिसके लिए तुम निरंतर मेहनत करते रहे, वह परिवार तुम्हारे साथ तभी तक है जब तक के तुम उनकी ज़रूरतों को पूरा करते हो।

यावत्पवनो निवसति देहे तावत् पृच्छति कुशलं गेहे। गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥6॥

तुम्हारे मृत्यु के एक क्षण पश्चात ही वह तुम्हारा दाह-संस्कार कर देंगे। यहाँ तक की तुम्हारी पत्नी जिसके साथ तुम ने अपनी पूरी ज़िन्दगी गुज़ारी, वह भी तुम्हारे मृत शरीर को घृणित दृष्टि से देखेगी।

बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः। वृद्धस्तावत् चिन्तामग्नः पारे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥7॥

सारे बालक क्रीडा में व्यस्त हैं और नौजवान अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करने में समय बिता रहे हैं। बुज़ुर्ग केवल चिंता करने में व्यस्त हैं। किसी के पास भी उस परमात्मा को स्मरण करने का वक्त नहीं।

का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयं अतीव विचित्रः। कस्य त्वं कः कुत अयातः तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः ॥8॥

कौन है हमारा सच्चा साथी? हमारा पुत्र कौन हैं? इस क्षण- भंगुर, नश्वर एवं विचित्र संसार में हमारा अपना अस्तित्व क्या है? यह ध्यान देने वाली बात है।

सत्संगत्वे निःसंगत्वं, निःसंगत्वे निर्मोहत्वं। निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥9॥

संत परमात्माओ के साथ उठने बैठने से हम सांसारिक वस्तुओं एवं बंधनों से दूर होने लगते हैं। ऐसे हमें सुख की प्राप्ति होती है। सब बन्धनों से मुक्त होकर ही हम उस परम ज्ञान की प्राप्ति कर सकते हैं।

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः। क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥10॥

यदि हमारा शरीर या मस्तिष्क स्वस्थ नहीं तो हमें शारीरिक सुख की प्राप्ति नहीं होगी। वह ताल ताल नहीं रहता यदि उसमें जल न हो। जिस प्रकार धन के बिखर जाने से पूरा परिवार बिखर जाता है, उसी तरह ज्ञान की प्राप्ति होते ही, हम इस विचित्र संसार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।

मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वम्। मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्म पदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥11॥

हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा गुरूर, सब एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। कुछ भी अमर नहीं है। यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा है। हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए।

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः। कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चति आशावायुः ॥12॥

समय का बीतना और ऋतुओं का बदलना सांसारिक नियम है। कोई भी व्यक्ति अमर नहीं होता। मृत्यु के सामने हर किसी को झुकना पड़ता है। परन्तु हम मोह माया के बन्धनों से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते हैं।

का ते कान्ता धनगतचिन्ता वातुल किं तव नास्ति नियन्ता। त्रिजगति सज्जन संगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका ॥13॥

सांसारिक मोह माया, धन और स्त्री के बन्धनों में फंस कर एवं व्यर्थ की चिंता कर के हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा। क्यों हम सदैव अपने आप को इन चिंताओं से घेरे रखते हैं? क्यों हम महात्माओं से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए हुए मार्ग पर नहीं चलते? संत महात्माओं से जुड़ कर अथवा उनके दिए गए उपदेशों का पालन कर के ही हम सांसारिक बन्धनों एवं व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो सकते हैं ।

जटिलो मुण्डी लुञ्चित केशः काषायाम्बर-बहुकृतवेषः। पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृत शोकः ॥14॥

इस संसार का हर व्यक्ति चाहे वह दिखने में कैसा भी हो, चाहे वह किसी भी रंग का वस्त्र धारण करता हो, निरंतर कर्म करता रहता है। क्यों? केवल रोज़ी रोटी कमाने के लिए। फिर भी पता नहीं क्यों हम सब कुछ जान कर भी अनजान बनें रहते हैं।

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशन विहीनं जातं तुण्डम्। वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् ॥15॥

जिस व्यक्ति का शरीर जवाब दे चूका है, जिसके बदन में प्राण सिर्फ नाम मात्र ही बचे हैं, जो व्यक्ति बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता, वह व्यक्ति भी स्वयं को सांसारिक मोह माया से छुड़ाने में असमर्थ रहा है।

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः रात्रौ चिबुक- समर्पित-जानुः। करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चति आशापाशः ॥16॥

समय निरंतर चलता रहता है। इसे न कोई रोक पाया है और न ही कोई रोक पायेगा। सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।

कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्। ज्ञानविहिनः सर्वमतेन मुक्तिः न भवति जन्मशतेन ॥17॥

हमें मुक्ति की प्राप्ति सिर्फ आत्मज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकती है। लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम ज्ञान अथवा मोक्ष प्राप्त नहीं होगा।

सुर-मन्दिर-तरु-मूल- निवासः शय्या भूतलमजिनं वासः। सर्व-परिग्रह-भोग-त्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः ॥18॥

जो इंसान संसार के भौतिक सुख सुविधाओं से ऊपर उठ चुका है, जिसके जीवन का लक्ष्य शारीरिक सुख एवं धन और समाज में प्रतिष्ठा की प्राप्ति मात्र नहीं है, वह प्राणी अपना सम्पूर्ण जीवन सुख एवं शांति से व्यतीत करता है।

योगरतो वा भोगरतो वा संगरतो वा संगविहीनः। यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं नन्दति नन्दति नन्दति एव ॥19॥

चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने अपने आप को परमात्मा से जोड़ लें तो हमें सदैव सुख प्राप्त होगा।

भगवद्गीता किञ्चिदधीता गंगा- जल-लव-कणिका-पीता। सकृदपि येन मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम् ॥20॥

जो अपना समय आत्मज्ञान को प्राप्त करने में लगाते हैं, जो सदैव परमात्मा का स्मरण करते हैं एवं भक्ति के मीठे रस में लीन हो जाते हैं, उन्हें ही इस संसार के सारे दुःख दर्द एवं कष्टों से मुक्ति मिलती है।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥

हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर।

रथ्याचर्पट-विरचित- कन्थः पुण्यापुण्य-विवर्जित- पन्थः। योगी योगनियोजित चित्तः रमते बालोन्मत्तवदेव ॥22॥

जो योगी सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर अपनी इन्द्रियों को वश में करने में सक्षम हो जाता है, उसे किसी बात का डर नहीं रहता और वह निडर होकर, एक चंचल बालक के समान, अपना जीवन व्यतीत करता है।

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः। इति परिभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥23॥

हम कौन हैं? हम कहाँ से आये हैं? हमारा इस संसार में क्या है? ऐसी बातों पर चिंता कर के हमें अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यह संसार एक स्वप्न की तरह ही झूठा एवं क्षण-भंगुर है।

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः व्यर्थं कुप्यसि सर्वसहिष्णुः। सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥24॥

संसार के कण कण में उस परमात्मा का वास है। कोई भी प्राणी ईश्वर की कृपा से अछूता नहीं है।

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ। भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाछंसि अचिराद् यदि विष्णुत्वम्॥ 25॥

हमें न ही किसी से अत्यधिक प्रेम करना चाहिए और न ही घृणा। सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है। हमें सबको एक ही नज़र से देखना चाहिए और उनका आदर करना चाहिए क्योंकि तभी हम परमात्मा का आदर कर पाएंगे।

कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम्। आत्मज्ञानविहीना मूढाः ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥26॥

हमारे जीवन का लक्ष्य कदापि सांसारिक एवं भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं होना चाहिए। हमें उन्हें पाने के विचारों को त्याग कर, परम ज्ञान की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। तभी हम संसार के कष्ट एवं पीडाओं से मुक्ति पा सकेंगे।

गेयं गीता नाम सहस्रं ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्। नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥27॥

उस परम परमेश्वर का सदैव ध्यान कीजिए। उसकी महिमा का गुणगान कीजिए। हमेशा संतों की संगती में रहिए और गरीब एवं बेसहारे व्यक्तियों की सहायता कीजिए।

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः। यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥28॥

जिस शरीर का हम इतना ख्याल रखते हैं और उसके द्वारा तरह तरह की भौतिक एवं शारीरिक सुख पाने की चेष्टा करते हैं, वह शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा। मृत्यु आने पर हमारा सजावटी शरीर मिट्टी में मिल जाएगा। फिर क्यों हम व्यर्थ ही बुरी आदतों में फंसते हैं।

अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्। पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥ 29॥

संसार के सभी भौतिक सुख हमारे दुखों का कारण है। जितना ज्यादा हम धन या अन्य भौतिक सुख की वस्तुओं को इकट्ठा करते हैं, उतना ही हमें उन्हें खोने का डर सताता रहता है। सम्पूर्ण संसार के जितने भी अत्यधिक धनवान व्यक्ति हैं, वे अपने परिवार वालों से भी डरते हैं।

प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्य विवेकविचारम्। जाप्यसमेत समाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम् ॥30॥

हमें सदैव इस बात को ध्यान में रखना चाहिए की यह संसार नश्वर है। हमें अपनी सांस, अपना भोजन और अपना चाल चलन संतुलित रखना चाहिए। हमें सचेत होकर उस ईश्वर पर अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर देना चाहिए।

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः। सेन्द्रियमानस नियमादेवं द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥ 31॥

हमें अपने गुरु के कमल रूपी चरणों में शरण लेनी चाहिए। तभी हमें मोक्ष की प्राप्ति होगी। यदि हम अपनी इन्द्रियों और अपने मस्तिष्क पर संयम रख लें तो हमारे अपने ही ह्रदय में हम ईश्वर को महसूस कर पायेंगे।

||●|| ॐ तत्सत् ||●||!


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Sunday 1 September 2019

रामकृष्ण वचनामृत (ठाकुर वाणी)




                  रामकृष्ण परमहंस
       ( 17/02/1836 - 15/08/1886)
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* ध्यान करते समय ईश्वर में डूब जाना चाहिए , ऊपर तैरने से क्या पानी के नीचे बाले लाल मिल सकते हैं ?
* कछुआ रहता तो पानी में है , पर उसका मन रहता है किनारे पर , जहाँ उसके अंडे रखे रहते हैं । संसार का काम करो पर मन रखो ईश्वर में ।
* हाथों में तेल लगाकर कटहल काटना चाहिये । अन्यथा हाथों में उसका दूध चिपक जाता है । भगवद्भक्ति रुपी तेल हाथों में लगाकर संसार रुपी कटहल के लिये हाथ बढ़ाओ ।
* दुष्टों के प्रति फुफकारना चाहिये , भय दिखाना चाहिये । जिससे वे कोई अनिष्ट न कर बैठें । पर उनका अनिष्ट न करना चाहिये ।
* कभी-कभी साधुओं का संग करना चाहिये और कभी-कभी निर्जन स्थान में ईश्वर का स्मरण और विचार ।
* जो बिषय का त्याग नहीं कर सकते , जिनका अहं भाव किसी तरह जाता नहीं , उनके लिये ‘ मैं दास हूँ ‘ ‘ मैं भक्त हूँ ‘ यह अभिमान अच्छा है । परन्तु ‘ मैं ब्रह्म हूँ ‘ ऐंसा अभिमान ठीक नहीं ।
* तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं । नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर । नीचे की सुई और ऊपर की सुई का एक होना ही योग है ।
* जो मनुष्य सर्बदा ईश्वर चिंतन करता है वही जान सकता है कि उनका स्वरुप क्या है ? दूसरे लोग केवल बाद-बिवाद करके कष्ट उठाते हैं ।
* सत्यवादिता कलियुग का तप है ।
* भक्ति भगवान को उतनी प्रिय है जितनी बैल को सानी।
* जिन्हे चैतन्य हुआ है , वे पाप-पुण्य के पार चले गये हैं । वे देखते हैं , ईश्वर ही सब कुछ कर रहा है ।
* हे ईश्वर तुम कर्ता हो और मैं अकर्ता हूँ । इसी का नाम ज्ञान है ।
* आम पर छिलका है इसलिये आम बढ़ता और पकता है । आम जब तैयार हो जाता है उस समय छिलका फेंक देना पड़ता है । इसी प्रकार माया रुपी छिलका रहने पर ही धीरे-धीरे ब्रह्मज्ञान होता है ।
* बिद्या से एक लाभ होता है । उससे यह मालूम हो जाता है कि मैं कुछ नहीं जानता और मैं कुछ नहीं हूँ ।
* वेदांती सदैब विचार करते हैं – ब्रह्म सत्य है , जगत मिथ्या है । यदि जगत मिथ्या है तो जो कह रहे हैं वे भी मिथ्या हैं । उनकी वातें भी स्वप्नवत हैं । बड़े दूर की बात है ।
* दया अर्थात सब प्राणियों से समान प्रेम ।
* जहाँ ब्रह्मज्ञान है वहाँ से सतोगुण भी बहुत दूर है ।
* ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं । जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं ।
* प्रायः उद्यान के बर्णन से ही चर्चा प्रारंभ और उसी में समाप्त हो जाती है । उद्यान के मालिक की खोज नहीं की जाती । जबकि ईश्वर का दर्शन ही जीवन का उद्देश्य है ।
* कंस के कारागार में देवकी-बासुदेव को चतुर्भुज शंख-चक्र-पद्म-गदा धारी भगवान के दर्शन हुए । पर तो भी उनका कारावास नहीं छूटा । शरीर ही सारे अनर्थ का मूल है , उसी को छूट जाना चाहिए था ।
         प्रारब्ध कर्मों का भोग होता ही है । जो बाण एक बार छोड़ा जा चुका , उस पर फिर किसी तरह का वश नहीं चलता ।
* जिस चालाकी से लोग ईश्वर को पाते हैं , वही चालाकी चालाकी है – सा चातुरी चातुरी ।
* ब्रह्मज्ञान के बाद भी अवस्था है । ज्ञान के बाद बिज्ञान है । बिज्ञान का अर्थ उन्हे बिशेष रूप से जानना है ।
* लकड़ी में आग है , इस बोध , इस विश्वास का नाम है ज्ञान । और उस आग से खाना बनाना , खाना खाकर हृष्ट-पुष्ट होना इसका नाम है बिज्ञान ।
            ईश्वर है , हृदय में यह बोध होना ज्ञान है । उनके साथ बार्तालाप करना , उनके साथ दास्य-सख्य-वात्सल्य-मधुर आदि भावों से आनंद करना बिज्ञान है ।
* ईश्वर के नाम से मनुष्य पवित्र होता है । इसलिए नाम संकीर्तन का अभ्यास करना चाहिये ।
* यदि अभ्यास रहा तो अंतिम समय उन्ही का नाम मुह से निकलेगा ।
* पाश में जो बंधा हुआ है वह जीव है और उससे जो मुक्त है वह शिव है ।
* देह बनी भी है और बिगड़ भी जायेगी पर आत्मा अमर है ।
* जैंसा रोग होता वैसी ही उसकी दवा दी जाती है । गीता में उन्होंने कहा है- मामेकं शरणं व्रज । उनकी जो इच्छा है वह करें । वे इच्छामय हैं । मनुष्य की क्या शक्ति है ?
* बिषयी मनुष्यों की कभी-कभी समाधि की अवस्था हो सकती है । सूर्योदय होने पर कमल खिल जाता है । परन्तु सूर्य मेघों से ढक जाने पर फिर बंद हो जाता है । विषय मेघ हैं ।
* श्री गुरु की कृपा से सब ग्रंथियाँ एक क्षण में ही खुल जाती हैं ।
* एकादशी करना अच्छा है । इससे मन पवित्र होता है । और ईश्वर पर भक्ति होती है ।
* जिसने संसार को त्याग दिया है , वह बहुत कुछ आगे बढ़ गया है ।
* केवल पंडिताई से क्या होगा , यदि बिवेक बैराग्य न हुआ ?
* ब्रह्म क्या है यह मुख से नहीं कहा जा सकता । वेद-पुराण-तंत्र-षड्दर्शन सब जूठे हो गये हैं ।
* लज्जा , घृणा और भय इन तीनों के रहते ईश्वर नहीं मिलता ।
* शिक्षा देना कठिन काम है । ईश्वर दर्शन के बाद उनका आदेश पाये तो वह लोगों को शिक्षा दे सकता है । परन्तु आदेश मिला है यह केवल मन में सोच लेने से नहीं चलता । ईश्वर सचमुच ही दर्शन देते हैं । और बातचीत करते हैं ।
* जिस पृथ्वी की सूर्य के साथ तुलना करने पर वह एक भटे की तरह जान पड़ती है , बस उतनी ही जगह पर मनुष्य चल-फिर रहा है ।
* जिस प्रकार पढ़ लेने पर पत्र अनुपयोगी हो जाता है , उसी प्रकार शास्त्रों का सार जान लेने पर पुस्तकें पढ़ने की आवश्यकता ।
* पढ़ने तथा अनुभव करने में बहुत अंतर है ।
ईश्वर दर्शन के बाद शास्त्र-विज्ञान आदि कूड़ा कर्कट जैंसे लगते हैं ।
* प्रेम परीक्षा नहीं करता बिश्वास करता है ।
* जिसे जो देना है यह उनका पहले से ही ठीक किया हुआ है । समय हुए बिना कुछ नहीं होता ।
* मन से कंचन और कामिनी का त्याग हुए बिना सारे त्याग बकवास हैं ।
* देह का सुख-दुःख चाहे कुछ भी हो , भक्त का ज्ञान भक्ति का ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होता ।
* साधना करते-करते ही उनकी कृपा से लोग सिद्ध होते हैं । कुछ परिश्रम भी करना पड़ता है । इसके बाद दर्शन और आनंद ।
* विचार जहाँ पहुंचकर रुक जाते हैं वहीं ब्रह्म हैं ।
* उन्हे जानकर संसार में रहने से संसार अनित्य नहीं रहता ।
* जिस विद्या के पाने पर मनुष्य उन्हे पा सकता है , वही यथार्थ विद्या है ।

Wednesday 14 August 2019

साधन पंचकम् (शंकराचार्य)

वेदो नित्यमधीयताम्,
तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां,
तेनेशस्य विधीयताम-
पचितिकाम्ये मतिस्त्यज्यताम्।
पापौघः परिधूयतां
भवसुखे दोषोsनुसंधीयतां,
आत्मेच्छा व्यवसीयतां
निज गृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम्॥१॥
वेदों का नियमितअध्ययन करें, उनमें निर्देशित (कहे गए) कर्मों का पालन करें, उस परम प्रभु के विधानों (नियमों)  का पालन करें, व्यर्थ के कर्मों में बुद्धि को न लगायें। समग्र पापों  को जला दें, इस संसार के सुखों में छिपे हुए दुखों को देखें, आत्म-ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहें, अपने घर की आसक्ति को शीघ्र त्याग दें ॥१॥
संगः सत्सु विधीयतां
भगवतो भक्ति: दृढाऽऽधीयतां,
शान्त्यादिः परिचीयतां
दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्। 
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं
तत्पादुका सेव्यतां,
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां
श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्॥२॥
सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शांति आदि गुणों का सेवन करें, कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें ॥२॥
वाक्यार्थश्च विचार्यतां
श्रुतिशिरःपक्षः समाश्रीयतां,
दुस्तर्कात् सुविरम्यतां
श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसंधीयताम्। 
ब्रम्हास्मीति विभाव्यता-
महरहर्गर्वः परित्यज्यताम् 
देहेऽहंमति रुझ्यतां
बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्॥३॥  
वाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए मैं रुपी अभिमान का त्याग करें, मैं शरीर हूँ, इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें ॥३॥
क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां
प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां,
स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां
विधिवशात् प्राप्तेनसंतुष्यताम्। 
शीतोष्णादि विषह्यतां
न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यतां औदासीन्यमभीप्स्यतां
जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम्॥४॥
भूख को रोग समझते हुए प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें, स्वाद के लिए अन्न की याचना न करें, भाग्यवश जो भी प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहें| सर्दी-गर्मी आदि विषमताओं को सहन करें, व्यर्थ वाक्य न बोलें, निरपेक्षता की इच्छा करें, लोगों की कृपा और निष्ठुरता से दूर रहें ॥४॥
एकान्ते सुखमास्यतां
परतरे चेतः समाधीयतां
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां
जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां
चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ
परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥५॥ 
एकांत के सुख का सेवन करें,  परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ ॥५॥

Thursday 25 April 2019

श्री शिक्षाष्टकम् (चैतन्य महाप्रभु)


श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥

हे भगवन ! आपका मात्र नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है-कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियां अर्पित कर दी हैं । इन नामों का स्मरण एवं कीर्तन करने में देश-काल आदि का कोई भी नियम नहीं है । प्रभु ! आपने  अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यंत ही सरलता से भगवत-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में अब भी मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाया है ॥२॥

स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ॥३॥

हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ  ॥४॥

हे नन्दतनुज ! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ । कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये ॥५॥

हे प्रभु ! आपका नाम कीर्तन करते हुए कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी, कब आपका नामोच्चारण मात्र से ही मेरा कंठ गद्गद होकर अवरुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा ॥६॥ 

हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है ॥७॥

एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें -वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥